Is Samay Tak इस समय तक
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भूमिका
डॉ. कमल किशोर गोयनका
'इस समय तक' की 78 कविताएँ अनेक भावों, संवेदनाओं, प्रसंगों तथा परिवेशों की कविताएँ हैं। कवि जीवन को देखता है - माँ को देखता है, प्रकृति के आंगन में घूमता है, गाँव की जिंदगी और शहर-गाँव के सम्मिलन पर अंतर्मन से बोलता है, अकृत्रिम प्रेम करता है, बेटी हो या पिता अथवा चिड़िया सबको याद करता है, प्रजातंत्र-जनता-संविधान-नेता आदि का मूल्यांकन करता है, मानवीय रिश्तों के महत्त्व को समझता है, कवि-कविता-भाषा को शब्द-रूप देता है, आदमी के गिरते रूप तथा युद्ध की भयानकता को याद करता है।
इन कविताओं में ऐसा इंद्रधनुषीय जीवन अपनी-अपनी दास्ताँ कहता है और कवि जीवन के नैसर्गिक सौंदर्य, प्राकृतिक परिवेश, प्रजातंत्र के स्वस्थ स्वरूप, मानवीय रिश्तों की गरिमा और मनुष्यता की रक्षा के लिए बार-बार कविता लिखता है और मनुष्य को, प्रकृति को, रिश्तों को, प्रजातंत्र आदि को उत्कर्षवान देखना चाहता है। यदि मानवीय रिश्तों को लें तो माँ, बेटी, पिता, प्रेयसी, पत्नी आदि पर मार्मिक कविताएँ हैं। माँ पर चार कविताएँ हैं और कवि 'माँ' की व्याख्या करता है –
‘श्रेष्ठतम प्रार्थना / लिखने के लिए / तमाम शब्द चुने / ज़िन्दगी-भर मैंने / और लिखा 'माँ'।'
प्रकृति में सूरज, समुद्र, धूप, फुहार, गोधूलि, भेड़ाघाट, चिड़िया आदि पर सुंदर कविताएँ हैं। इनसे कवि का प्रकृति-प्रेम स्पष्ट है और यह भी कि कवि प्रकृति के साथ आत्मलीन हो जाता है और मानवीय रिश्तों को बनाये रखता है। 'बर्फ़बारी में' कविता में प्रकृति और कवि साथ-साथ चलते हैं -
‘ताज़ी बर्फ़ तेरी बातों की तरह आती है / उड़ती है, मचलती है, फिसल जाती है / बर्फ़बारी में अंजलियाँ भर आकाश से / तेरे पीछे दौड़ता हूँ, गिलहरी मुस्कुराती है।’
कनाडा में रहते हुए भी कवि अपने भारत को देखता है, प्रजातंत्र को देखता है, और और उसके लोक-विरोधी स्वरूप का उद्घाटन करता है। सत्ताधारी नकाब ओढ़े हैं, बस वोट से सत्ता चाहते हैं, क्रांति तो मुखौटा है और वह कौम की तस्वीर नहीं बदल सकती। कवि की चिंताएँ व्यापक हैं, पर उसका प्रकृति-सौंदर्य और मानवीय संबंधों की मधुरता भी उतनी ही व्यापक है। कवि, परिवार, रिश्ते, प्रकृति, गाँव, प्रेम कविता आदि सभी के प्रति संवेदनशील है और यह इस कविता-संग्रह का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। कवि प्रजातंत्र की दुर्दशा और मनुष्यता के क्षय तथा व्यापक विध्वंस के प्रति चिंतित है जो निश्चय ही पहले पक्ष की रक्षा एवं निरंतरता के लिए आवश्यक है। अतः कवि मुख्यतः मानव संस्कृति एवं प्रकृति दत्त जीवन का कवि है और वह विकृति तथा विध्वंस के चित्रण से भी इसी भाव को जाग्रत करता है और यही उसके सशक्त कवि होने की पहचान है। कवि अपने पहले कविता-संग्रह में ही जिस ऊँचाई तक पहुँचता है वह हमें उसकी रचनात्मकता तथा काव्य-चेतना के प्रति आश्वस्त करता है। धर्मपाल महेंद्र जैन को बधाई इस आशा के साथ कि वे अपनी सर्जनात्मकता को अक्षुण्ण रखेंगे और शीघ्र ही उनका दूसरा कविता संग्रह भी आ सकेगा। वे कनाडा में हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए कर रहे हैं उसके लिए भारत की ओर से उनका अभिनन्दन।
प्रमुख समीक्षाओं से
प्रकाशन के पहले संस्करण वर्ष (2019) में ही इसके दूसरे संस्करण छपने एवं शांति-गया स्मृति कविता पुरस्कार के लिए चुने जाने की ख़बर से यह किताब चर्चा में रही है।
प्रवासी कवि की कविताएँ - प्रकृति और जीवन के सहकार के लिए
- प्रो. बी.एल. आच्छा
धर्मपाल महेन्द्र जैन से मेरा साक्षात्कार उनके व्यंग्यों की मार से ही हुआ है। इतने चुभते-चुभाते काँटों के बीच ‘इस समय तक’ का काव्य राग सर्वथा अलहदा है। ये कविताएँ जितनी राग वत्सल हैं, उतनी ही अपने आँचलिक भूगोल में खिलती हुईं। मगर रागात्मक काव्य चेतना का प्रवाह पारिवारिकता में जितना तरल है, प्रकृति के अनेकवर्णी रंगों में जितना निखरा है, प्रकृति और मानवीय रिश्तों में जितना सहचर बनाता है, उतना ही जनजीवन के यथार्थ और बदलाव भरे सपनों की सकर्मक आस्था का भी है। इन कविताओं में समुद्र सोखती किरणों की वह उष्णता है जो भाप की तरह आकाशी बन जाती है, पर प्रकृति के बीच मानवीय रिश्तों में भावतरल होकर धरती का परस करती है। यह तरलता प्रकृति के रंगों में, रिश्तों के परिवेशों में, कविताओं के शब्द-राग में, अपने आँचलिक भूगोल में, आम आदमी के गहराते दर्दों में इतनी हिलमिल गयी है कि बार-बार यथार्थ की नुकीली चट्टानों में बहना और मानवीय आस्थाओं को उगाना चाहती है।
माँ से शुरू हुई स्नेहिल आस्था आदमी के भीतर बाहर परिक्रमा करती हुई, उलझे-सुलझे रिश्ते को पहचानती हुई, प्रकृति की आस्थापरकता से लिपटती हुई अन्ततः एक ही संकल्प में बहना चाहती है- “पागल हाथी-सा मदोन्मत्त/ या अग्नि-सा आवारा बन/ मैंने खुद ही नष्ट कर दिए सघन वन/ मैं अपने ही लोगों के नरमुंडों से सुसज्जित था/ तो जीव-जंतु, जलचर-नभचर/ मेरे क्या लगते?/ मैं अहंकार के लावे में डूबा/ अब सोच रहा हूँ/ मुझे तुम्हें वह/ वसुधैव कुटुम्बकम लौटाना है/ मुझे तुम्हें वह लौटाना है। जो मुझे मिला था।” जन्मदात्री माँ का स्नेह पूरी धरती माँ में रूपान्तरित हो जाता है। आदमियों की दुनिया में वानस्पतिक-जैविक रूपों में, संस्कृति के प्रवाह में अपनी आस्तिकता को छिटकाता हुआ। निश्चय ही कवि की भावयात्रा के ये सोपान जीवन और प्रकृति के सहकार में और बेहतर रिश्तों के लिए आस्था व दुनिया को रचते हैं।
सुबह सवेरे में बृजेश कानूनगो 20 जनवरी 2019
प्रवासी भारतीय की भारतीय कविताएँ
- डॉ. नीलोत्पल रमेश
‘उस समय से’ शीर्षक कविता में कवि ने सत्ता के परिवर्तन को ‘उस समय से इस समय तक’ की बारीकियों को बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि से वर्णित किया है। सत्ता के खेल में उस समय से अब तक असंख्य लोगों की जानें गई हैं। कवि कहता है –
“करोड़ों भेड़ें लील गया महाभारत / कलिंग में बहीं खून की नदियाँ / धुँआ हो गया हिरोशिमा
वियतनाम, ईरान से सीरिया तक / आदमी ही कटा, गडरिए चलते रहे / उस समय से इस समय तक।
‘सत्ता की देह में’ कविता में कवि ने देश की राजनीति में नेताओं की भूमिका पर सबसे बड़ा प्रश्न चिह्न लगाया दिया है। वह कहता है कि ये जनता को नहीं देखते हैं बल्कि अपना लाभ देखते हैं।
“बदलिये दल, जमाइये कुर्सी, बेचिये देश
भागिये सबसे तेज़, न हाँफिये नेताजी।
‘आधुनिकता का चेहरा’ कविता में कवि ने बाजारवाद की गिरफ्त में आती पीढ़ी की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है। यह बाजार भी ऐसा है कि जो चीजें नहीं बिकतीं उन्हें मुफ्त में देकर अपना प्रभुत्व कायम रखता है।
“इच्छाओं का अवमूल्यन / बाज़ार को बेआबरू कर सकता है
इसलिए दुकानदार एक चीज़ ख़रीदने पर / सममूल्य दूसरी चीज़ भेंट करते हैं।
‘इस समय तक’ की ये कविताएँ भी पाठकों को बाँधे रखने में सक्षम हैं - ‘भोपाल : गैस त्रासदी’, ‘प्रार्थना कुबूल हो’, ‘मुझे तुम्हें वह लौटाना है’, ‘आस्था की खातिर’, ‘रिश्तों के जाल में’, ‘नई पत्तियाँ आ रही हैं’, ‘साहबान!’, ‘बड़े भाई’, ‘भाषा बनने लगी हथियार’, आदि। धर्मपाल महेंद्र जैन की कविताएँ भारत में लिखी जा रही कविताओं से किसी भी मायने में कमजोर नहीं है बल्कि उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं। भाषा, भाव, कहन और प्रतीक - सबकी दृष्टि से ‘इस समय तक’ की कविताएँ बेजोड़ हैं। इस अप्रवासी भारतीय कवि की कविताओं का हिंदी संसार में स्वागत किया जाना चाहिए व इनकी कविताओं की ओर पाठकों का ध्यान जाना चाहिए।
नया ज्ञानोदय, अप्रैल 19